Monday, June 11, 2007

अब रूहें भी नहीं लौटेगी इस देश

अजगर बरसाती
एक लघू कथा

कोलकाता का मेटीआ ब्रुज़ इलाका, सन 1991.

बच्चा माँ की छाती से चिपटा पेट की भूख शांत करने की कोशिश कर रहा था. तभी हल्ला हुआ. भगदड़ मची. अल्लाहो अकबर के नाद के साथ तलवारें लहराता कहर बरसा. बच्चा छीन लिया गया, सदा के लिये. पल भर में माँ की छातियाँ सड़क पर कटी पड़ी थी. एक सैलाब किकियारीयाँ करता आगे बढ़ गया.
वे पसीने से सने हुए थे. तलवारे लहू से भरी हुई, मगर अभी भी प्यासी.

”साले का काट कर उसकी जनानी के हाथ में रख दिया”
टहाको से वातावरण में भय पसर गया.
”उसके बाद उसके साथ जो किया उसकी रूह भी कभी लौट कर सवाल नहीं करेगी”
”इंसा-अल्लाह, जन्नत में हूरे प्रतिक्षा कर रही है”
”मैं तो बोलता हूँ, सालो को और अच्छा सबक सिखाया जाना चाहिए, जैसे पाकिस्तान लिया, हिन्दोस्तान में भी शरीयत का कानून लागु हो जाये तो रोज रोज का टंटा मीटे.”
शरीयत के कानून की बाते सुन कई जनाना रूहे मूगलिया काल को याद कर काँप उठी.
वे अब कभी यहाँ इस देश में लौटना नहीं चाहेंगी.

6 comments:

dhurvirodhi June 11, 2007 at 9:54 PM  

एकदम घटिया.
क्या धर्म और साप्रदायिकता के धतकर्म के अलावा और कुछ शेष नहीं है?

Nataraj June 11, 2007 at 10:28 PM  

धूर विरोधीजी
घटीया बढ़ीया तो नजरों का फेर है. और अपनी अपनी समझ है.
ऐसी ही टिप्पणी "प्रतिरोध" चिट्ठे पर कर आते तो यह कथा यहाँ रखनी ही नहीं पड़ती, चलिए आपका दोहरा चरित्र तो उजागर हो गया.

अनुनाद सिंह June 11, 2007 at 11:53 PM  

भाई नटराज,
आपकी बात में दम है। किन्तु सनातन धर्म यही कहता है कि "न ब्रूयात सत्यमप्रियम" (जो सत्य हो किन्तु अप्रिय हो, उसे भी नहीं बोलना चाहिये)। कुरान इस तरह की बातों से भरा पड़ा है, किन्तु उसको नजरअंदाज करना (किन्तु सावधान रहना) ही ठीक होगा।

Atul Sharma June 12, 2007 at 12:43 AM  

मैं इस पोस्ट को पहले भी देख चुका था। नटराज भाई आपकी बात सही भी है परंतु मुझे ‍टिप्पणी के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे। अब मैं कहता हूँ कि अनुनादजी जो कह रहे हैं वही ठीक है।

dhurvirodhi June 12, 2007 at 1:30 AM  

बिलकुल ठीक नटराज जी, अपनी अपनी समझ है.
मेरी दृष्टि में तो धर्म आपका व्यक्तिगत मामला है. हर धर्म की किताबों के अंट शंट मिल जायेगा. धर्म के धतकर्म को चौराहे पर नहीं धोना चाहिये.

ePandit June 12, 2007 at 4:55 AM  

मैं भी अनुनाद जी से सहमत हूँ। यदि कुता मनुष्य को काट खाए तो उसे अपना बचाव तो करना चाहिए लेकिन बदले में उसको काट खाना उचित नहीं।

अगर हम भी बदले में विषवमन ही करने लगें तो इस तरह के लोगों और हम में क्या फर्क रह जाएगा। अग्गि पानी से शांत होती है घी डालने से नहीं।

अनुनाद जी ने कितनी सुंदर बात कही है:

सत्यम ब्रूयात प्रियम ब्रूयात मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम।

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