Saturday, June 20, 2009

इन्हे भी सम्मन भिजवाईये माननीय दिनएश रॉय द्विवेदी ...

अरूण जी तो आपकी सिरफ़िरे वकीलों की सम्मन वाली लगातार आ रही मेलो से तंग आकर अपना ब्लोग मिटा कर चल दिये .आपके चेलो ने टिप्पणी भी की, की आपकी चिरकुट मंडली से घबरा कर टाप टेन ब्लोगर अपना ब्लाग डीलीट करने लगे है.लेकिन हम आपको बता दे कि अरूण जी ना तो घबराये थे ना ही डरे थे. अरूणजी तो देखने में लगे थे कि जब कोई आदमी वकालत पास कर लेता है तो उसके अंदर इन्सानियत कितनी समाप्त हो जाती है. अपने अलावा वो किसी की सुनने को राजी होता भी है या सिर्फ़ अपनी ही सुनाता है. या धमकियाँ देने और उट पंटाग केसो मे उलझाने जैसी निचली और टुच्ची बातों पर उतर आता है. अरूण जी ने मुझे बताया था उन्होने ब्लोग डीलीट आपकी आत्म संतुष्टि के लिये किया था ताकि आप तन और मन से स्वस्थ बने रहे. अगर आप हम सब के ब्लोग जगत से हट जाने पर ही स्वस्थ हो सकते हो तो आप स्वस्थ रहे हम भी अपना ब्लोग हटा लेगे. हम लोगो का क्या है हमतो ब्लोगजगत में बिना राय दिये बिना लोगो को धमकी दिये भी स्वस्थ ही रहते है. दर असल अरूण जी पता नही था कि वकील लोग बिना राय दिये बिना कोर्ट कचहरी की धमकी दिये स्वस्थ नही रह सकते :) ये उन्हे और हमे भी आपसे ही पता चला इसके लिये धन्यवाद. अरूण जी को पहले से पता नही था वरना हम आपके खंबा नोचने से पहले ही ये काम कर देते. वैसे मै अरूण जी को जितना जानता हूँ वो दिखने में जरूर शकल से नही दिखते पर है, दयालु और बेवकूफ़ किस्म के आदमी. अरूण जी तो बिना किसी से मिले उसके काम आ सकते हो तो आ जाते है लेकिन आपसे तो वो मिल भी चुके थे. अगर आप अरूण जी बता देते कि आप ब्लोगजगत से हट जाओ तो वो वैसे भी हट ही जाते. हम आपकी दुविधा अब समझते है उधर सुरेश जी कसाब और काजिम के विरुद्ध लोगो का गुस्सा भडका रहे थे इधर अरूण जी. आपने कसाब और काजिम के हितों के लिये ब्लोगजगत मे कपिल जी काशिफ़ जी के साथ मिल कर मुहिम चलाई हुई है और अरूण जी वेदो मे क्या है , ना आप और काशिफ़ जी से समझना चाहते थे ,ना ही कपिल जी के कश्मीर से सेना हटाने की मुहिम मे शामिल हो सकते थे. अरूण जी मान रहे थे कि आप उनके ब्लोग पर तथा बिना किसी कारण के भी उन्हे दस हजार सम्मन भिजवा सकते थे लेकिन ब्लोग डीलीट उन्होने आपकी आत्म संतुष्टी के लिये किया था . सुरेश जी के पीछे आप जमाने से पडे है. कभी धनात्मक तो कभी कोई और राय. अब अरूण जी के पीछे पड गये थे .यानी या तो आपकी राय मानो या फ़िर कोर्ट मे आने की धमकी झेलो . मुझे नही लगता अरूण जी ने तो कुछ ऐसा नही कहा था वकीलो के बारे मे जो आप और आपके चेले उन्हे धमकात्मक राय देने पीछे पड गये श्रीमान .वैसे आप कितने महान है ? आपकी महानता की महिमा हमे जगह जगह दिखाई दे रही है. आप उन्हे गड्ढे मे से निकालने वाले भी बन रहे है पर उससे पहले उन्हे इस ( कोर्ट के चक्कर मे ) गड्ढे मे डालने की कोशिशो मे भी आप ही संलग्न दिख रहे है.

अपकी जानकारी के लिये ब्लोग पर वकीलो की ऐसी तैसी करती ये पोस्ट मै यहाँ फ़िर से पोस्ट कर रहा हूँ श्रीमान .इस की कुछ नाक कान टांग उखाड कर दिखायेगा और नही कर पाये तो झोला उठाकर चलते बनियेगा . बंदानवाज या सिर्फ़ आपकी धमकिया जो आपकी इज्जत कर रहे हो उन्ही के लिये है क्या? .यहाँ वकीलो की इतनी धज्जिया उखेडी गई है जितनी अरूण जी ने कभी की ही नही . सो अब किसीको मिर्ची लगे तो हम कुछ नही कर सकते :) वैसे आप यहाँ भी देख सकते है एक और पाकिस्तानी को वकील नही मिला है आप चाहे तो किसी को भेज सकते हैं, कसाब को नही तो दूसरे एक पाकिस्तानी आतंकवादी को बचाने की हसरत तो पूरी हो ही जायेगी.
यहाँ मथुरा के वकीलो ने देश प्रेम दिखा दिया है आपके वाला नही सच्चा देश प्रेम.

वैसे वकील कैसे होते है आप यहाँ भी ज्ञान अर्जन कर सकते है

वकील: नोटवर्किंग की कील

खास फीचर | द्वारा/by : अविनाश वाचस्‍पति | सोमवार , 23 जून 2008

काली करतूतों को सफेद कारनामा बनाने के लिए काले कोट वाले ही काम आते हैं। जिन्‍हें आप, हम और सब वकील के नाम से जानते हैं और वकील न ठोंके कील, हो नहीं सकता। काले कोट वालों की कीलियां करतूतें आज जगजाहिर हैं। इनकी कीलों की महिमा अपरंपार है। इन्‍हें देख सह कर भी अनदेखा अमहसूसा करने से ही समस्‍याओं से छुटकारा मिलता है। इन्‍हें रामबाण तो नहीं, हां वकीलबाण कहने में कोई बुराई नहीं है।

कीलें वही आहृलादकारी जो वकील चुभोते हैं। वकील की कील नेस्‍तनाबूद कर डालती है परन्‍तु अपने होने का रंच मात्र भी अहसास होने नहीं देती है। कोर्ट के दरवाजे के बाहर पेड़ों के नीचे इनके झुरमुट बगुला भगत की तरह ध्‍यान लगाए रहते है कि कोई उधर टपके तो उसको लपकें । शादी करानी हो या तलाक, मर्डर करके आए हो या करने जा रहे हों, पड़ोसी को हैरान करना हो या किसी खानदानी विवाद को निर्विवाद करना हो अथवा दूसरे के फंटे में टांग अड़ानी घुसानी हो , जरिया जनहित याचिकाएं.... वकील अपनी सेवाएं लिए हमेशा मुस्‍तैद मिलते हैं।

वैसे ऐसा भी नहीं है कि वकील सिर्फ कील ही चुभोते हैं। ये फांसें भी निकालते हैं । फांसें का मतलब फंसे हुए भी हो सकता है और बांस की जो महीन सी बांसीय तार का छोटा सा पीस शरीर के किसी भी अंग में कहीं भी समा जाती है और शरीर को भरपूर टीस देता है, उससे भी छुटकारा दिलाते है। फांसे का अर्थ फंसे हुए में लेने पर बोध होता है कि इनकी विरल माया फांसी के फंदे तक से छुड़ा लाने के लिए भी ख्‍यात होती है और इसी के चलते इन पर नोटों की जो बरसात होती है, उसके लिए सावन की जरूरत भी नहीं है, वो बरसात भूमि पर और इसके गर्भ में मौजूद यथा सागरीय जल के माफिक होती है जो कभी चुकती नहीं है और सदैव बरसती रहती है। इसमें आई सुनामी इनकी लॉ की लोकधुन को ला धन की गरिमा प्रदान करती है। नोटवर्किंग के बेशुमार द्वार ओपन करती है। लोग घर बार , गहने , भूमि सब कुछ बेचकर भी इनके काले कोट की जेबें अपने सफेद काले नोटों से भरते रहते हैं। फिर भी इनके बैंक खातों पर कोई रंग
नहीं चढ़ता और वे झकाझक सफेद ही रहते हैं। जब तक नोट देने वाले के पास होते हैं , धवल होते हैं परन्‍तु वकीलों के काले कोट की जेब में जाते ही स्‍याह हो जाते हैं। पर नजर सफेद ही आते हैं। आपने शायद ही सुना हो कि वकील को दी गई फीस की रसीद मिली हो या उस पर किसी तरह के टैक्‍स से राहत।

मुजरिम ही नहीं, निर्दोष भी इनके चंगुल में गुल हो जाते हैं क्‍योंकि अपनी निर्दोषता को साबित करने के लिए भी ये ही एकमात्र अवलंब होते हैं, इनके जाल में जो भी उलझा, उसे बाकी उलझनों से मुक्ति मिल जाती है। जब तक सांस है तब तक आस वाली उक्ति यहीं पर सटीक बैठती है। अपने जीवन भर की पूंजी दांव पर लगाकर मुजरिम अपने बचने के उपक्रम वकीलों के सहयोग से अनवरत करता रहता है। तो उधर सभ्‍य जन जो पुलिसिया उपक्रम इत्‍यादि के तहत फांसे गए होते हैं, अपने बचाव के लिए इन्‍हीं की शरण में जाते हैं, वे खुद तो बच जाते हैं पर सब कुछ लुटा बैठते हैं और फिर यही सब्र कर लेते हैं कि चलो जान बची तो लाखों पाए जबकि यहां पर लाखों के निवेश पर जान का डिवीडेंड मिलता है।

आप एक बार इनसे मिल भर लें, आपने सिर्फ मिलना है भरवा तो ये आपसे लेंगे ही, कभी कागज के नाम पर, कभी स्‍टांप के नाम पर, कभी फोटोस्‍टेट , कभी टाइपिंग और कभी किसी और कभी किसी, आप इनकी नोटवर्किंग में एक बार फंस कर तो देखिए, आपको नेटवर्किंग की तुच्‍छता का अहसास अपने आप हो जाएगा और इतने विरल अनुभव होंगे कि मैं तो एक लेख लिख रहा हूं आप एक पूरी पुस्‍तक नॉनस्‍टाप लिख जाएंगे, मानो भारत की राजधानी के दक्षिण में चालू हुई बहुचर्चित बीआरटी कॉरीडोर में बस की तरह बेलगाम बढ़ते चले जा रहे हैं।

इनके धन जुगाड़ने के नायाब तरीके हैरतअंगेज होते हैं। इस पर भी तुर्रा ये कि नोटों की गर्मी का इन्‍हें अहसास तक नहीं होता। कितने ही नोट बटोर लें पर इनके चैम्‍बरों में हीटर चलते मिलेंगे। नोटों की गर्मी इनके दिमाग में भी नहीं चढ़ती है। चाहे कितनी ही गर्मियां हों इनके झूठ बोलते समय आप पसीने की एक बूंद तक नहीं तलाश पाएंगे। झूठमर्मज्ञता में महारत हासिल ये कूल बने रहते हैं। मानो वकीलों की यह मदमस्‍त कौम सृष्टिरचयिता द्वारा सदैव ठंडी रहने के लिए ही अस्तित्‍व में लाई गई हो जबकि इनका संग इनके मुवक्किलों की जेबें बड़ी ही चतुराई से ठंडी करता रहता है। फिर चाहे कड़ाके की सर्दी ही क्‍यों न पड़ रही हो , मुवक्किल को इस सर्दी में भी आनंददायक गरमाहट की असीम अनुभूति होती है।

समझदार लोग तो वकील से संपर्क करने के बाद ही जुर्म को अंजाम देते हैं और मुजरिम की सम्‍मानोपाधि से भी वंचित बने रहते हैं । इनकी संगत की रंगत में आपके ज्ञानचक्षु भव्‍य दिव्‍यता पायेंगे कि इस मार्ग से होकर आप अपनी करतूतों को अमली जामा पहनाएंगे तो कानून आपको छू भर भी नहीं पाएगा और आप साफ बेदाग बच जाएंगे। पर उन दागों से बचने के लिए दाम भरपूर वसूले जाते हैं। इनके आगे तो पुलिस की मिलीभगतीय करतूतें भी बौनी साबित हो रही हैं। जबकि मुजरिमों को बचाने के लिए पुलिस कौम गजब की कुख्‍याति दिन सोलह गुनी रात चौंसठ गुनी अर्जित कर रही है। उनसे मिलजुलकर जुर्म किए जाते हैं ।

आपने खूब सुना होगा कि इस सांठ गांठ की गांठ बहुत कमजोर होती है, पुलिस की कलई भी खुल जाती है और पुलिस भी फंस जाती है। कभी आपने सुना है कि कभी कोई वकील अपने मु‍वक्किल को बचाते हुए खुद फंसा हो, जिस पर जग हंसा हो। मुजरिम बचे ना बचे, इन्‍हें कोई फंसा नहीं सकता। कानून की किताबों के कीड़े ऐसे ऐसे पेंच निकाल लाते हैं कि मुजरिम तो मुजरिम जज भी इनके मुरीद हो जाते हैं। उनको अपना मुरीद बनाने के लिए कुछ दाम भी लग जाएं तो क्‍या दुख, आखिर दाम में ही है दम। वकीलों द्वारा जजों को अपने मोहपाश में जकड़ने के किस्‍सों का खुलासा समय समय पर होता रहता है। आज के वकीलों में ही भविष्‍य का जज मौजूद होता है।

आपने कभी नहीं सुना होगा कि वकील रिश्‍वत लेते धरा गया जबकि जज धर लिए जाते हैं। इसका सीधा सा कारण है कि इनको चढ़ाए गए चढ़ावे को रिश्‍वत और घूस कतई नहीं कहा जा सकता। वकीलों को मिलते ही यह फीस हो जाती है और फीस लेना तो जायज होता है। वो बात दीगर है कि अब घूस देने को कानून सम्‍मत बनाने के लिए इस देश में प्रयास किए जा रहे हैं। अगर इन भगीरथी प्रयासों से वकीलों को जोड़ लिया गया होता तो अब तक तो सफलता मिले भी अरसा हो गया होता। ये चाहते तो उस पर टैक्‍स भरवा कर उसे कानूनी जामा भी पहनवा देते और एक बार कानूनी बन जाने पर उस टैक्‍स से बचने का तोड़ भी यही बतलाते। गजब के तिकड़मी होते हैं वकील। आप चाहे जीतें, चाहे हारें, चाहे सुलह करें पर इनकी विजय पताका वकीलों की ही फहराती है। यह जीतकर भी कभी फूलों के हार नहीं पहनते और फूल बनाते हैं। यह कहना भी समीचीन होगा कि इसलिए इन पर नोटों के फूल सदा बरस बरस का अपनी सुगंध बिखेरते रहते हैं

विश्‍व विजयी वकील हमारा।
नोटवर्किंग का दिखाये अदृभुत नजारा।

14 comments:

Anonymous,  June 20, 2009 at 6:30 AM  

हुँह

खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे।

Anonymous,  June 20, 2009 at 6:54 AM  

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…
वर्ग विभाजित समाज व्यवस्था में राज्य न्याय इसलिए करता है ताकि व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह को टाला जा सके। इस व्यवस्था में जनता को तो पिसना ही है। इस में वकीलों का दोष क्या है। आप ने व्यंग्य के लिए गलत विषय चुन लिया। व्यंग्य करना था तो न्याय प्रणाली पर करते। आप के व्यंग्य ने व्यवस्था के नंगे सच को ढ़क दिया है। और वकीलों को निशाना बनाया है।
देश के वकीलों की कुल संख्या में से आधे से अधिक की आय तो साधारण क्लर्क से अधिक नहीं है। वे हास्य का विषय हो सकते हैं व्यंग्य का नहीं।
आप का यह आलेख व्यंग्य भी नहीं है, आलोचना है, जो तथ्य परक नहीं। यह वकील समुदाय के प्रति अपमानकारक भी है।
क्यो?ठेकेदार है आप वकीलो के,ये भगवान की गाय है इन पर उंगली नही उठ सकती.महाधूर्त महाकपटी नीच व्यंग का विषय क्यो नही हो सकते? तुम जो गंदगी फ़ैला चुके हो उस पर लिखे जो गंदगी फ़ैला रहा हो उस पर नही.क्या बात है चोर पर ना लिखो पुलिस को गाली दो वाह वाह बेशरम तो बहुत देखे पर इतने नही

Anonymous,  June 20, 2009 at 7:34 AM  

दिनेश राय भले व्यक्ति है प्रतिदिन मेरे चिट्टे पर टिप्पंणी करते हैं, मैं भी इनके चिट्टे पर टिप्पनी करता हूं हमें आपस के ऊपर व्यग्य नहीं करने चाहिये चिट्टाकार समुदाय से बाहर के व्यक्तियों पर ही व्यग्य करने चाहिये

अब सम्मन भेजने की जरूरत नहीं क्योंकि नोटवर्कींग की पोस्ट ही मिटा दी गयी है

Anonymous,  June 20, 2009 at 7:35 AM  

काने को काना कहोगे तो वो चिड़ेगा ही

Anonymous,  June 20, 2009 at 8:13 AM  

kana kaun?
pangebaj ya dinesh

Anonymous,  June 20, 2009 at 8:31 AM  

Can't you understand who is Kana

I won't disclose because I want to do blogging.

Anonymous,  June 20, 2009 at 8:32 AM  

India's justice undermined by corruption

India’s Chief Justice K. G. Balakrishnan has expressed concern over the decreasing number of civil dispute cases filed in the country’s courts, saying that people seem to be resorting to processes outside the law to settle disputes.

Balakrishnan said that if the average citizen was aware of his rights, the number of cases should be high, but the decreasing cases indicated that people were using illegal methods to resolve their disputes.

Settling disputes outside the court would be good if proper mediation methods were used. But in India people hire thugs and criminals to bully and threaten their opponents, thereby forcing a settlement. Although this has been going on for a decade, it appears that the Indian judiciary is only now waking up to this reality.


To make matters worse, professional ethics among lawyers are virtually nonexistent. A lawyer accepting money from both sides in a case is no longer news. Often, lawyers prefer adjournments of cases since each additional day of hearings fetches them money. Corruption is not limited to lawyers, however; they are just one component of a large machine.

Even if a judge is not corrupt, a case could still be stalled due to the corrupt court staff. Officers ranging from the court registrar to the process server demand and accept bribes. It is almost impossible for papers to be processed in the court registry unless the court staffs are paid bribes.

Judges are often aware of corruption, but they never initiate action against their own staff. Corruption is omnipresent, from the lowest court to the Supreme Court. The only difference is the amount of money demanded and paid. Even some judges are corrupt.

The chief justice has said that the judiciary requires judges who are committed to social values, and has emphasized training for judges. However, a value system cannot be inculcated into a person by mere training, to be applied while in the judge's chamber, if it differs from his practice outside the chamber.

Some practices within the judiciary are alien to the concepts of decency and human and professional dignity. Some would shame feudal lords. For instance, if a senior judge visits the jurisdiction of a subordinate judicial officer, even on a visit with his family, it is common practice for him to require the subordinate officer to serve as his orderly during the visit. Such showy and egotistical practices cannot be changed by training, but could be stopped if members of the judiciary would treat a judge's office as higher than that of a corrupt politician prone to public show.

A judge’s dignity is not based on his “social value,” but on his knowledge and skill in applying the law. A judge who is morally degraded by his superior officers cannot be expected to be fair and impartial in applying the law.

The standard of the Indian judiciary has arguably degenerated in the past three decades and the degradation process has been especially rapid in the past 10 years. This contradicts the fact that in the past 10 years the judges’ conditions have improved considerably. An Indian judge is no longer a poorly paid public servant. Yet cases implicating members of the judiciary in corruption and other scandals are on the increase in the recent years.

http://www.upiasia.com/Human_Rights/2009/05/25/indias_justice_undermined_by_corruption/9287/

Anonymous,  June 20, 2009 at 10:22 AM  

हर जना पंगेबाज़ नहीं होता नहीं होता बेवकूफ।
तुम्हारी बात गलत है वो पोस्ट निकाली नहीं गयी मौजूद है। लिंक लगाने वाला गलत लगाये तो कोई क्या करे मूर्ख

ये रही लिंक
http://www.moltol.in/index.php/20080623764/Khash-Feature/Advocate-Machine-of-Note-working.html

और यह उसने लिखी है जो कभी गंभीर लेखन के लिये नहीं जाना गया मात्र हास्य के लिये जाना आता है। इसको भी दिल पर क्यों ले कर अपना राग अलाप रहे हो बेवकूफ

Anonymous,  June 20, 2009 at 2:02 PM  

ऊपर बाले अनानीमस के हाथ गुस्से से कांप रहे होंगे जब "नहीं होता नहीं होता" लिख रहा होगा

इस हास्य पर भी जिस तरह दिल पर लेकर दिनेस राय ने अपनी आपत्ति जताई है इसे मूर्खों का राग अलापना कहना सही है

Anonymous,  June 20, 2009 at 6:24 PM  

Sabhi log Anonymous bankar kyon comment kar rahe hain bhai?

विवेक रस्तोगी June 20, 2009 at 6:45 PM  

अरर सभी के नाम टिप्प्णी करने वालों के नाम गायब हैं ये तकनीकी समस्या है या फ़िर कोई भी अपना नाम पब्लिश नहीं करना चाहता है।

Kapil June 21, 2009 at 2:16 AM  

प्रलाप...विलाप...आत्‍मालाप...

भारतीय नागरिक - Indian Citizen June 21, 2009 at 2:49 AM  

पहले इसे पढें
http://incitizen.blogspot.com/2009/06/blog-post_21.html
फिर अपनी राय दें.

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